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आदिम आर्य्य
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जा बसे थे; पहले उन्हें उसकी कुछ भी खबर न थी। उन ग्रन्थो मे जो वेदो से पीछे बने अनेक अन्यान्य देशों के नाम पाये जाते है। परन्तु, वेदो मे भारत के बाहर का एक भी भौगोलिक नाम नहीं।

भिन्न भिन्न देशो की भिन्न भिन्न जातियों में कितने ही तद्भव और तत्सम शब्द, एक ही अर्थ में, व्यवहृत होते हैं। उन्हीं शब्दों के इतिहास के आधार पर शब्द-शास्त्र-वेत्ताओं ने यह परिणाम निकाला है कि प्राचीन काल में, आदिम आर्य्य, एकही स्थान से कितने ही जत्थों में बंट कर, पृथ्वी के अन्य भागो में फैल गये। यदि ऐसा हुआ हो तो इसमें सन्देह नहीं कि अपनी प्राचीन भूमि छोड़ने के पहले ही आर्य्य लोग बहुत कुछ सभ्य हो चुके थे, क्योंकि जिन शब्दो से शब्द-शास्त्र-वेत्ता अपना यह मत पुष्ट करते है उनमे से कितने ही शब्द ऊँचे दर्जे की सभ्यता के सूचक हैं। आजकल की असभ्य जातियो को भी थोड़ा बहुत दिशाओं का ज्ञान होता है। वे दिशाओ के कुछ न कुछ नाम अवश्य रख लेती हैं। इसलिए मानना पड़ेगा कि सभ्य आर्य्य-जाति ने अपनी प्राचीन भूमि छोड़ने के पूर्व्व, दिशाओं का नाम अवश्य कुछ न कुछ रख लिया होगा। परन्तु हम देखते है कि बात ऐसी नहीं है। जितनी आर्य्य भाषायें, आज कल संसार मे प्रचलित हैं उनमे दिशाओं के सूचक एक से शब्द नहीं। भारतीय आर्य्यों की भाषा में दिशाओं के नाम "उत्तर", "दक्षिण", "पूर्व " और "पश्चिम" हैं। ये चारों शब्द और किसी भाषा में नहीं पाये जाते। यदि आर्य्य लोग बाहर से भारत में आये तो यह नहीं माना जा सकता कि