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अतीत-स्मृति
 


की, और दक्षिण दिशा के निस्सीम विस्तार के खयाल से 'दक्षिण' शब्द की दृष्टि हुई होगी।

ग्रीक और लैटिन भाषाओं में जो शब्द 'दक्ष' से मिलते जुलते से हैं उनके वही अर्थ हैं जो, आजकल, संस्कृत में, इस शब्द के होते हैं। परन्तु संस्कृत के 'दक्षिण' और ज़ेन्द भाषा के 'दर्शन' शब्द के वही अर्थ हैं जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है।

'पूर्व' शब्द के अर्थ ये है-'पहला'-'पहले का' और 'मृत-काल' का। यह शब्द 'नूतन' शब्द का प्रतिकूलार्थवाची है। 'पूर्व' और 'नूतन' का प्रयोग ऋग्वेद के पहले ही सूक्त की दूसरी ही ऋक् मे हुआ है। इससे इन दोनों शब्दों का अन्तर अच्छी तरह प्रकट होता है। 'पश्चिम' का अर्थ है 'पुराना'। अब यदि हिमालय के उत्तर-पूर्व में रहने वाले लोग ही भारत के उत्तरी भाग में निवास करने वाले वैदिक ऋषियों के पूर्वज रहे होंगे, तो उनका उत्तर मे बस कर 'पूर्व' और 'पश्चिम' दिशाओं के नाम रखना सर्वथा सार्थक था।

यदि यही मान लिया जाय कि दिशाओं का नाम सूर्य की गति के अनुसार ही रक्खा गया होगा, तो, फिर 'उत्तर' शब्द की ठीक व्याख्या नहीं हो सकती, और, साथ ही साथ, भारतीय लोगों के निर्दिष्ट किये हुए दिशाओं के नामों से उन जातियों की, दिशाओं के नामों में कोई समानता नहीं पाई जाती जिनका प्राचीन सम्बन्ध हिन्दुओ से बतलाया जाता है। कृष्णयजुर्वेद में लिखा है:-