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आदिम आर्य्य
२९
 

प्राचीनवशं करोति देवो मनुष्या दिशो व्यभजन्त।
प्राची देवा दक्षिणां पितरः प्रतीची मनुष्या उदीची रुद्रः॥

इससे प्रकट है कि प्राचीन लोग दक्षिण दिशा ही से आगे बढ़े थे। पूर्व मे देवताओ का वास था। वे लोग जाकर उनसे मिले। फिर जो निरे मनुष्य ही थे वे पश्चिम में सुख भोगने के लिए गये। उत्तर में भी भीषण रुद्र का राज्य था। ये सब बातें पूर्वोक्त सिद्धान्त को अच्छी तरह पुष्ट करती हैं।

ये तो हुई मजूमदार महाशय की युक्तियां। अब उनके मत के विरोधी श्रीयुक्त रामचन्द्र के॰ प्रभू की बातें भी, संक्षेप में सुन लीजिए :-

मजूमदार महाशय का मत है कि भारतीय आर्य्य कहीं बाहर से नहीं आये। सबसे बड़ी दलील जो वे अपने इस मत की पुष्टि में पेश करते है वह यह है कि जिन अन्य देशो और जातियो से भारतीय आर्य्यों का प्राचीन सम्बन्ध बताया जाता है उनके यहां वही या उनसे मिलते जुलते दिशा-सूचक शब्द नहीं हैं, जो भारतीय आर्य्यों के हैं। परन्तु बात ऐसी नहीं है। 'पूर्व' और 'दक्षिण'-इन दो शब्दों से अन्य देशो में भी उन्हीं दिशाओ से मतलब है जिनके वे भारत में बोधक है। पारसियों के प्राचीन ग्रन्थ अवस्ता में 'पूर्व' शब्द का अर्थ है-'पहला' अथवा 'सब से पहले'। पारसी लोग हिन्दुओ की तरह सूत्र धारण करते है। वे लोग सूत्र को 'कुश्ती' कहते हैं। कुश्ती के उत्सव में ज़न्दअवस्ता का एक मन्त्र पढ़ा जाता है, जिसमें "यौव्वीनीम" शब्द