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अतीत-स्मृति
 


की है। औरों को तो बात ही नहीं "पायनियर" तक ने इसके स्तुति पाठ में अपना एक स्तम्भ खर्च किया है। पहली बार, तिलक के साथ जब उनके मित्र गोपाल गणेश आगरकर, एम० ए०, कारागार-वासी हुए थे तब उन्होंने कारागार ही में एक पुस्तक लिखी थी। सुनते हैं, तिलक ने भी यह नई पुस्तक, इस बार, जेल में आरम्भ की थी और उसको बहुत कुछ सामग्री उन्होंने वही इकट्ठी की थी। वहाँ के कठिन परिश्रम के अनन्तर जो समय उनको मिलता था उसमे वे वैदिक साहित्य से प्रमाण संग्रह करते थे।

असामान्य-बुद्धि-वैभव-शाली पुरुषों की सभी लीलायें असामान्य होती हैं। बड़ी बड़ी आपत्तियों में भी उनका चित्त चञ्चल नहीं होता; उनकी बुद्धि पूर्व्ववत् बनी रहती है; वे ज़रा भी धैर्य-च्युत नहीं होते। तिलक महाशय इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है।

तिलक ने अपनी इस नई पुस्तक में यह सिद्ध किया है कि आदिम आर्य्य मेरु प्रदेश, अर्थात् उत्तरी ध्रुव, के आस पास ही रहा करते थे। इस अनुमान के सिद्ध करने के लिए उन्होंने वेदों से, पारसियों की धर्म पुस्तक अवेस्ता से, और प्राचीन ग्रीक लोगों के यहाॅ प्रचलित गाथाओं से प्रमाण उद्घृत किये है। उनके लेखन- कौशल, उनकी प्रमाण-चयन-प्रणाली, उनकी तकना-पद्धति को देख कर आश्चर्य होता है। उन्होने अपने मत को इस योग्यता से प्रतिपादित किया है कि उसे स्वीकार करने में बहुत ही कम सन्देह किया जा सकता है। किस अकाट्य युक्ति से उन्होंने