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आर्य्यों का आदिम-स्थान
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अर्थात् मेरु मे भेषादि-चक्रार्द्धगामी सूर्य को देवता सदा देखते हैं।

यदि आर्य्यों के पूर्वज कभी उत्तरी ध्रुव में रहते थे तो उनके देवता भी निःसन्देह वहीं कहीं रहते रहे होंगे। प्राचीनों पर नवीनों की विशेष श्रद्धा होती है। इस समय हम लोग प्राचीन ऋषि-मुनियों को देवताओ से कम नहीं समझते। अतएव सर्वथा सम्भव है कि वैदिक आर्य्यों ने अपने पूर्वजों को देवता माना हो। अब मनुस्मृति का एक प्रमाण सुनिए-

दैवे राज्यहनी वर्ष प्रविभागस्वयोः पुनः।
अहस्तत्रोद्गयनो रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्॥
अ॰१, श्लोक ६७

अर्थात् मनुष्यों का एक वर्ष देवताओ के एक दिन-रात के बराबर है। इन दोनों का फिर इस प्रकार विभाग किया गया है-सूर्य का उत्तराधिमुख-गमन दिन है और दक्षिणाभिमुख-गमन रात। महाभारत में तो सुमेरु का बहुत अच्छा और स्पष्ट वर्णन है। वनपर्व के १६३ और १६४ अध्यायों में अजन के सुमेरु पर्वत पर जाने का विस्तृत वर्णन है। वहां लिखा है-

एनं त्वहरहर्मेरुं सूर्याचन्द्रमसौ ध्रुवम्।
प्रदक्षिणमुपावृत्य कुरुतः कुरुनन्दन॥
ज्योतीषि चाप्यशेषेण सर्वाप्यनघ सर्वतः।
परियान्ति महाराज गिरराज-प्रदक्षिणम्॥
अ॰ १६३, श्लोक ३७-६८