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अतीत-स्मृति
 


में जहाँ ऐसा अलौकिक प्रकाश होता है उस देश को मनुष्य-निवास के सर्वथा योग्य समझना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं। डाक्टर नानूसेन के अनुसार तो मेरु-प्रदेश के समान रमणीय और देश ही नहीं। फिर जिस समय आर्यगण वहां रहते थे उस समय वहां उतना शीत न पड़ता था। शीत कुछ था अवश्य, परन्तु वसन्त ऋतु का सा था। शीत ही के कारण, अनुमान होता है, प्राचीन आर्य हवन करने लगे थे। उनके अग्नि-होत्री और हवन-प्रिय होने का यही कारण जान पड़ता है। दीप-दान इत्यादि की प्रथा भी इसी कारण से प्रचलित हुई जान पड़ती है। दीपक का उपयोग रात ही में होता है। दिन में किसी देवता को दीप दिखलाना और न दिखलाना बराबर है।

प्रति वर्ष विपुव-वृत्त से उत्तर २४ अंश और दक्षिण भी उतने ही अंश तक सूर्य का आवागमन होता है। वैदिक काल में जब सूर्य विषव-वृत्त से उत्तर को जाता था तब उसे उत्तरायण संज्ञा प्राप्त होती थी; और जब वह इस वृत्त से दक्षिण को गमन करता था तब वह दक्षिणायन कहलाता था। उसी उत्तरायण का नाम वेदों में देवयान और दक्षिणायन का पितृयान है। इस देवयान और पितृयान का ऋग्वेद-संहिता में अनेक बार उल्लेख आया है। एक उदाहरण लीजिए-

प्र-मे पन्था देवयाना अदृश्यन्तमर्धन्तो वसुमिरिष्कृतासः
अमूदु केतुरुषसः पुरस्तात्प्रतीव्यागादधि हर्मेभ्यः॥
मं॰७, सूक्त १६, मंत्र २।