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आर्य्यों का आदिम-स्थान
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अर्थात् देवयान्-मार्ग हमको देख पड़ने लगा; उषा का केतु (पताका) पूर्व दिशा में उदित हो गया। देवयान का उलटा पितृयान है; उसका भी उल्लेख ऋग्वेद में है, यथा:-


परं मृत्यो अनुपदे हि पन्था यस्ते स्व इतरो देवयानात्।
चक्षुष्मते शृरावते ते व्रवीमि मा नः प्रजां रीरिषो मोत वीरान्

मण्डल १० सूक्त १८, मन्त्र १

इसमें "देवयानात् इतरः" इन शब्दों से पितृयान अर्थ लिया गया है; क्योंकि देवयान का उल्टा पितृयान ही हो सकता है। यहां पर पितृयान मृत्यु का मार्ग माना गया है। जब देवयान का आरम्भ उषा अर्थात् प्रात:काल से होता था, तब पितृयान का आरम्भ सायङ्काल से होना ही चाहिए। इसलिए तिलक महाशय का अनुमान है कि देवयान से वैदिक ऋषियो का आशय दिन और पितृयान से रात का था। इन दो भागों में, उस समय, वर्ष विभक्त था। यह लक्षण मेरु-प्रदेश मे तब भी पाया जाता था और अब भी पाया जाता है। पारसियों के धर्म-ग्रंथ में भी यही बात लिखी है। वहाँ उसका और भी स्पष्ट वर्णन है। लिखा है कि "जिसको वर्ष कहते है उसको वे लोग एक दिन मानते हैं। वहां पर चन्द्र, सूर्य्य आदि वर्ष में एकही बार उदित और अस्त होते है और एक दिन एक वर्ष के समान जान पड़ता है।" इससे अधिक स्पष्ट मेरु-प्रदेश का वर्णन और क्या होगा? दक्षिणायन सूर्य ही का नाम पितृ-यान है। पितृयान में मरना अशुभ माना गया है। इस लिए भीष्म शरशय्या पर बहुत दिन तक पड़े पड़े, मरने के लिए,