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अतीत-स्मृति
 


देवयान की प्रतीक्षा करते रहे। पितृयान मे बराबर ६ महीने तक रात रहती थी। रात में मृतकों का दाह-कार्य अच्छी तरह नहीं हो सकता। इसीलिए इस काल में मरना बुरा माना गया है। इससे हज़ारों वर्ष को पुरानी रूढ़ि का चिन्ह, अब तक, इस देश में विद्यमान है। अब यहां यद्यपि केवल १२ घण्टे की रात होती है, तथापि रात में चिता दाह नहीं होता। यह रीति उसी प्राचीन वैदिक रीति की सूचक है।

वैदिक साहित्य में लम्बी उषाओं का भी वर्णन है। जैसे पहले हम एक जगह लिख आए हैं, उत्तरी ध्रुव में लगभग दो महीने तक उषा अर्थात प्रातःकाल रहता है। ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि "गवामयनम्" सत्र में होता (हवन करने वाला) उषःकाल रहते रहते, एक हज़ार ऋक् पाठ करता था। आश्वलायन और आपस्तम्म ने तो यहां तक कहा है कि सूर्योदय के पहले ही वे ऋग्वेद के समय दश मण्डलो की आवृत्ति करेंगे। इससे सिद्ध है कि उस समय बहुत देर में सूर्योदय होता था। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के ७६वें सूक्त के अन्तर्गत तीसरे मन्त्र में लिखा है "सूर्योदय के पहले बहुत दिन थे; उन दिनों में हे उषा, तुम सूर्य की ओर जाती थी"। यहां पर देखिए, बहुत काल-व्यापिनी उषा का स्पष्ट उल्लेख है। ऐसी उषा केवल उत्तरी ध्रुव में होती है; अन्यत्र नहीं।

जैसे प्रमाण ऊपर दिये गये हैं वैसे अनेक प्रमाण तिलक ने अपने अपूर्व-पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ में दिये हैं। वेदों से, ब्राह्मणों से, पुराणों से, ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रंथों से, पारसियों के धर्म-ग्रन्थ