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अतीत-स्मृति
 


अज्ञात वास करता है और ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करता है। तभी उसका प्रायश्चित्त होता है। बाली और लम्बक में सतीदाह की प्रथा अब भी वर्तमान है। इसे वहां वाले "सत्य" कहते हैं। यह प्रथा क्षत्रियों और वैश्यों में विशेष रूप से प्रचलित है। वहां के हिन्दू बहु-विवाह कर सकते हैं। इसलिए यह अकसर देखा जाता है कि एक मनुष्य के मरने पर कई विधवायें चिता पर जलती हैं। मृत मनुष्य का सत्कार करने की प्रणाली कुछ विचित्र सी है। जब कोई मनुष्य मरता है तब उसी समय वह जलाया नहीं जाता; किन्तु एक मास के बाद उसकी अन्त्येष्ठ-क्रिया की जाती है।

साधारण आदमियों की अन्त्येष्ठ-क्रिया जिस तरह की जाती है उस तरह राजा की नहीं की जाती। रानियों की सहमरणरीति भी कुछ भिन्न है। राजा की अन्त्येष्ठ-क्रिया समाप्त हो जाने पर उसकी चिताभस्म रख ली जाती है। उसके पाँचवें दिन सब रानियां एक निर्दिष्ट स्थान पर इकट्ठी होती हैं। उस समय पटरानी एक गोला फेंकती हैं। वह गोला जहां गिरता है उसी जगह रानियां अपनी अपनी छातियों में छुरियां भोंक लेती हैं। इस तरह उनकी सहमरण-क्रिया समाप्त हो जाती है।

बाली-द्वीप में शाल-वाहन का शकाब्द अब भी व्यवहृत है। वहां वाले उसे "शकवर्षचन्द्र" कहते हैं। वहां के शैव लोगों के पास बहुत से हस्त-लिखित ग्रंथ पाये जाते हैं। उनमें से प्रधान ग्रंन्थों के नाम उन लोगों की बोली में ये हैं-आगम, आदिगम, सारसमुश्चयागम, देवागम, मैश्वलत्व, श्लोकान्तरागम, गन्यागम