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अतीत-स्मृति
 

पर वाद-विवाद करने के नियम हैं। मनमानी बात कह देने का नाम विवाद या विवेचना नहीं है। इस बात को भारत के दार्शनिक महात्माओ ने भी स्वीकार किया है। यदि कोई कहै कि १० और १० इक्कीस होते हैं तो उसका यह उत्तर ठीक अवश्य होगा कि १० और १० इक्कीस नहीं बीस होते हैं। परन्तु विवेचना का यह तरीका ठीक नहीं है। विवेचक को चाहिए कि वह अपने उत्तर को, अपने मत को, मजबूत दलीलों से साबित करे और उसके साथ ही प्रतिपक्षी के मत का सप्रमाण खण्डन भी करे। जो यह कहता है कि १० और १० बीस होते हैं, उसे चाहिए कि एक जगह १० और दूसरी जगह ११ लकीरें खींच कर वह अपने प्रतिपक्षी से उन्हें गिनावे और इस बात को साबित करे कि इक्कीस होने के लिए १० और ११ की ज़रूरत होती है। ऐसा करने से उसके प्रतिपक्षी का मत खण्डित हो जाएगा। तब वह १० और १० लकीरों को गिन कर सिद्ध करे कि उनका जोड़ बीस होता है। इस तरह उसके मत का मण्डन होगा। यह उदाहरण कल्पित है। और भी कई तरह से नियमानुसार खण्डन-मण्डन हो सकता है। १० और १० मिल कर बीस होते है। यह निर्भ्रान्त है। परन्तु इस प्रकार निर्भ्रांत उत्तर देने वाले की तर्कपद्धति भी जब सदोष मानी जाती है तब भला बिना प्रमाण के यदि कोई १० और १० के जोड़ को २१ या १९ बताने लगे तो उसकी तर्कना-प्रणाली का क्या कहना है। जिसे विवेचना में इस प्रकार की पद्धति का अवलम्बन होता है वह हेय और उपेक्ष्य समझी