पृष्ठ:अतीत-स्मृति.pdf/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४
अतीत-स्मृति
 

जिस समय दुबे जी का लेख हमारे पास आया, हम कर्निहाम साहब की पुरातत्व सम्बन्धी रिपोर्ट पढ़ रहे थे। उनमें एक अध्याय देहली के ऊपर था। उसमें युधिष्ठिर के सम्बन्ध में गंभीर गवेषणा से भरा हुआ एक लेख था। उसे हम दो ही चार दिन पहले पढ़ चुके थे। इसलिए दुबे जी के लेख पर नोट देते समय हमने कर्निहाम साहब का मत भी लिख दिया। उनके मन में महाभारत हुए कोई सवा तीन हजार वर्ष हुए। हमने अपने मन में कहा कि जब सब अपने अपने मत लिख रहे हैं तब उनका भी सही। जो अपने मत को सबल और विश्वसनीय प्रमाणों से सच्चा साबित कर देगा उसी का मत मान्य हो जायगा। किसी अँगरेज या मुसलमान को राय लिख देना क्या कोई अनुचित बात है?

इस पर हमारे सुविज्ञ प्रयाग-समाचार ने हमारे नोट पर एक लेख-मालिका निकालनी शुरू की है। इस मालिका का पहला नम्बर ५ मार्च के प्रयाग समाचार में निकला है। आप की राय है कि विलायती पंडितों के पुरातत्व-विषयक सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक और अविश्वसनीय होते हैं। सब नहीं, उतने ही जितने "हम लोगों" के सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं। पर हमारी मन्दबुद्धि में यह आता है कि एक आदमी का सिद्धान्त दूसरे, आदमी के सिद्धान्त के विरुद्ध होने ही से वह भ्रान्तिमान् या विश्वासहीन नहीं हो सकता। विरोध होना अविश्वसनीयता का चिन्ह नहीं। देशियों के भी सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक हो सकते है और विदेशियों के भी। पर प्रमाण की अपेक्षा होती है। क्या स्वदेशियों के सभी