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अतीत-स्मृति
 

आया। शायद अन्त की माला में इसका रहस्य खुले। बङ्किम बाबू ने अपनी पुस्तक में विलायती पण्डितों को दो चार उल्टी सीधी सुनाई हैं। उनका अनुवाद करके पाठकों का मनोरञ्जन करने के लिए यदि यह परिश्रम हो तो हो सकता है।

गीता हिन्दुओं की सब से पूज्य पुस्तक है। उसमें लिखा है—

"शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।"

तब यदि हैट-कोट-धारी कोई मनुष्य कुछ कह दे तो क्या उसके हैट कोट के कारण ही उसकी बात अविश्वसनीय हो जाय? ऐसा तो नहीं हो सकता। यदि उसके कथन में कुछ सार है तो उसे ले लीजिए और यदि नहीं है तो जाने दीजिए। यह कोई न्याय नहीं कि बिना प्रतिकूल प्रमाण के ही हैट-कोट और बूट वालों का पुरातत्त्व-सम्बन्ध में कुछ कहना सर्वथा अश्रद्धेय है और तिलक, माला और पगड़ी वालों का कहना सर्वथा श्रद्धेय है। बङ्किम बाबू के चित्र में भी हम पगड़ी देखते हैं; परन्तु कृष्ण-चरित्र में उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें कही हैं जिनको सुन कर धार्म्मिक हिन्दू शायद काँप उठें।

बङ्किम बाबू के लेख का जो भाव प्रयाग-समाचार के मान्यवर सम्पादक ने हिन्दी में दिया है उसमें कई जगह दृष्टि-दोष हो गया है। उसके दो एक उदाहरण हम देते है।

मूल-कृष्ण-चरित-१म खण्ड, ४र्थ परिच्छेद

(१) महाभारत प्राचीन ग्रन्थ बटे, किन्तु खि॰ पू॰ चतुर्थ कि

हिन्दी भावार्थ

महाभारत प्राचीन ग्रन्थ तो है; परन्तु अब से चार अथवा पांच शताब्दी पूर्व रचा गया।