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अतीत-स्मृति
 


चलाना और फिर उसे ६०० वर्ष पीछे फेंक देना बड़ी ही अस्वाभाविक बात है। भारतवर्ष का इतिहास देखने से मालूम होता है कि जितने विजेता राजों ने संवत् चलाया, सब ने नया संवत्, अपने ही नाम से, चलाया है। पुराणों और भारतवर्ष की राज नीति-सम्बन्धिनी प्राचीन पुस्तकों में इस बात की साफ आज्ञा है कि बड़े बड़े नामी और विजयी नरेशों को अपना नया संवत् चलाना चाहिए। युधिष्ठिर, कनिष्क, शालिवाहन और श्रीहर्ष आदि ने इस आज्ञा का पालन किया है। शिवाजी तक ने अपना संवत् अलग चलाने की चेष्टा की है। अतएव दूसरे के संवत् को अपना बनाने की कल्पना हास्यास्पद और सर्वथा अस्वाभाविक है। अपना संवत् चलाने की अपेक्षा दूसरे के संवत् को अपना बनाना बहुत कठिन है। संवत् चलाने वाले का एक मात्र उद्देश यह रहता है कि उसके द्वारा उसका नाम चले और जिस उपलक्ष्य में संवत् चलाया गया हो उसकी याद लोगों को बनी रहे। साथ ही उस स्मरणीय घटना का काल भी लोगों को न भूले। इन सब बातों पर ध्यान देने से यही कहना पड़ता है कि जो विद्वान यशोधर्मन् को मालव-संवत् का नाम बदलने वाला समझते हैं, उन्होंने बिना पूर्वापर विचार किये ही ऐसा समझ रखा है।

डाक्टर भाण्डारकार कहते हैं कि गुप्तवंशी राजा प्रथम चन्द्रगुप्त ने पहले पहल अपना नाम विक्रमादित्य रक्खा और उसी ने मालव-संवत् का नाम, अपने नामानुसार, बदल कर विक्रम-संवत् कर दिया। परन्तु इस बात पर विश्वास नहीं होता, इसलिए कि