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अतीत-स्मृति
 


बिना अन्न के विद्या-बल, बुद्धि-बल और नीति-बल एक भी काम नहीं आ सकता। अन्न न मिलने से धार्मिक आदमी भी पशुवत् हो जाता है और माता भी अपने सन्तान की हत्या कर सकती है। आदमी और सब कुछ सह सकता है, पर अन्नाभाव नहीं सह सकता। पर्णकुटी में वास करके भी मनुष्य महाज्ञानी हो सकता है, किन्तु उसे यदि अन्न न मिले तो उसकी मनुष्यता शीघ्र ही उसे छोड़ भगे। इसी से संसार में कृषि और कृषि-विद्या की अपेक्षा कल्याणकर और कुछ भी नहीं है। कृषि विद्या को अपसारित करने से हमारी सभ्यता चूर्णविचूर्ण हुए बिना न रहेगी। समाजिक, धार्म्मिक और पारिवारिक सारे बन्धन ढीले हो जायँगे और हमें फिर मांस, दूध और फल-मूलों पर बसर करना पड़ेगा। अतएव जिन लोगों ने कृषि और कृषि-विद्या की उद्भावना की उनके हम चिरन्तन ऋणी हैं।

इस समय "आर्य्य" कहलाने में हम अपना गौरव समझते हैं। और गौरव की बात है भी ज़रूर। किन्तु "आर्य्य" शब्द का मूल अर्थ है "कृषक" (किसान) या "कृषक-सन्तान"। यह शब्द "ऋ" धातु से निकला है। यह धातु गत्यर्थक है। किन्तु अन्यान्य‌ आर्य्य जातियों को भाषाओं में भी इसकी अनुरूप एक धातु है जिसका अर्थ खेती करना है। ग्रीक भाषा में "अर्-अ" धातु, लैटिन भाषा में "अर्-ओ", गथिक भाषा में "अर्-गन्" लिथूनियन भाषा में "अर-ति" और जेन्द भाषा में "रर" धातु है। इन धातुओं का अर्थ खेती करना या हल से खेत जोतना है।