धारण करना अपने लिए गर्व की बात समझा। तब से विक्रमादित्य एक प्रकार की उपाधि या पदवी हो गई।
कल्हण ने राजतरंगिणी में विक्रमादित्य-विषयक भूलें की हैं। हर्ष-विक्रमादित्य और शकारि-विक्रमादित्य, दोनों को गड्डमड्ड कर दिया है। डाक्टर स्टीन आदि विद्वानों ने इस बात को अच्छी तरह सिद्ध करके दिखा दिया है। पुरातत्व पंडित कल्हण की इन भूलों को बिना किसी सोच विचार के भूलें कहते हैं। कल्हण के वर्णन से स्पष्ट है कि काश्मीर के इतिहास का सम्बन्ध दो विक्रमादित्यों से रहा है। एक मातृगुप्त को भेजने वाले हर्ष विक्रमादित्य से, दूसरे प्रतापादित्य के सम्बन्धी शकारि विक्रमादित्य से। इनमे से हर्ष-विक्रमादित्य ईसा की छठी शताब्दी के प्रथमार्द्ध में विद्यमान था। रहा शकारि विक्रमादित्य। सो वह हाल की सप्तशती में वर्णन किये गये विक्रमादित्य के सिवा और कोई नहीं हो सकता। ईसा के पूर्व, प्रथम शतक में, शको का पराभव करने वाला वही था। इसका एक और प्रमाण लीजिए:-
विन्सेट स्मिथ साहब ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास मे लिखा है कि शक जाति के म्लेच्छों ने ईसा के कोई १५० वर्ष पहले उत्तर-पश्चिमाञ्चल से इस देश मे प्रवेश किया। उनकी दो शाखायें हो गई। एक शाखा के शको ने तक्षशिला और मथुरा में अपना अधिकार जमाया और क्षत्रप नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिक्कों से उनका पता ईसा के १०० वर्ष पहले तक चलता है। उसके पीछे उनके अस्तित्व का कहीं पता नहीं लगता। दूसरी