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९-पुराणों की प्राचीनता

जनवरी १९१२ के "माडर्न रिव्यू" मे वी॰ सी॰ मजूमदार महाशय का लिखा हुआ एक लेख, पुराणों के विषय में, प्रकाशित हुआ है। उसका भावार्थ, संक्षेप मे, नीचे दिया जाता है।

संस्कृत मे और उससे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य भारतीय भाषाओं में "पुराण" शब्द का अर्थ पुरातन है। जब इस शब्द का व्यवहार संज्ञा की भांति किया जाता है तब इससे उन धार्मिक ग्रन्थो का मतलब लिया जाता है, जिनमे प्राचीन समय के देवताओ, राजो और महापुरुषो की कीर्ति का वर्णन है।‌ "पुराण" शब्द नया नहीं है, वह वेदों में भी पाया जाता है। वहाँ भी उसका वही अर्थ है जो उसके संज्ञा-रूप का होता है। अथर्ववेद के ग्यारहवें काण्ड के सातवे सूक्त में यह शब्द ईसा‌ अर्थ मे व्यवहृत हुआ है। इससे पुराणों की प्राचीनता प्रकट होती है। पौराणिक साहित्य उतना ही प्राचीन और पुनीत है जितने कि वैदिक मन्त्र, जैसा कि आगे चल कर प्रमाणित किया जायगा।

यज्ञ मे वेद-मन्त्रो का काम पड़ता है। परन्तु कौन मन्त्र किस समय और किस प्रकार पढ़ा जाना चाहिए, इन बातों का जिक्र वेदों में कहीं नहीं। साम, ऋक् और अथर्व-वेद मे केवल मन्त्र ही मन्त्र हैं। हां यजुर्वेद में अवश्य यज्ञ करने और मन्त्र