पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/११

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कि वह अपने शरीर में से एक नया जीवित शरीर निकालती है, जिसमें परिपूर्ण जाग्रत आत्मा का सतत निवास है। परन्तु जिस क्षण से वह शरीर माता के शरीर से पृथक् होता है---बस पृथक् ही होता जाता है। सर्वप्रथम वह एक अति सूक्ष्म रजकण है, फिर वह माता के रक्त को पान करके वृद्धिगत होता है। वह पिता की मेधा-प्रतिभा और ओज तथा स्थैर्य पाता है और माता का स्वभाव, हृदय और भाव। जब वह परिपूर्ण हो जाता है, उसका हृदय स्पन्दित होने लगता है और प्रसव के बाद उसका एक अलग अस्तित्व हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह बालक बड़ा होता है, वह बाह्य संसार में प्रविष्ट होता जाता है। माता से प्रतिक्षण वह दूर ही रहता है। अन्त में केवल श्रद्धा और आदरही माता की सम्पत्ति रह जाती है, परन्तु जब वह अपने जीवन के पूर्ण ओज को पहुंचता है अर्थात् युवक होता है, तब एक स्त्री उसे पत्नी के रूप में मिलती है। वह बिल्कुल अपरिचित है, भिन्न कुल और गोत्र की है। परन्तु पत्नी होने के बाद वह प्रतिक्षण उसके निकट आती है। और वह निकट ही नहीं, प्रत्युत दोनों परस्पर एक-दूसरे में प्रविष्ट होते हैं---न केवल शरीर से, प्रत्युत आत्मा से भी। आज जगत् में ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं कि पति-पत्नी के सम्बन्ध के आगे माता-पिता तक त्यागे जाते हैं, सब कोई गैर बन जाते हैं। इस मिथुन सहयोग में जो वैज्ञानिक और प्राकृतिक आकर्षण है और उसका मध्यस्थ जो चरम श्रेणी के आनन्द का परस्पर संयुक्त आदान-प्रदान है, वह उन्हें बाह्य संसार से लगभग अन्धा बना देता है। अब तक वे एक होने पर भी दो थे। उनके प्राण एक थे, पर शरीर दो थे। अब दोनों जब गर्भ-स्थापनाकरते हैं, तो वे अन्तिम श्रेणी में पुत्र के रूप में एकीभूत होते हैं, उस सन्तान के रूप में दोनों संयुक्त हैं, जिसमें दोनों का एक प्राण, एक शरीर है।

यह दम्पति का महत्त्व है। इसी कारण विवाह की मर्यादा