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अदल-बदल :: २९
 

मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लें। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।'

'मत सहो, मत सहो बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।'

'यही करूंगी श्रीमती जी। परन्तु हमारा सबसे बड़ा मुकाबला तो हमारी पराधीनता का है, माना कि कानून का सहारा पाकर हम वैवाहिक बन्धनों से मुक्त हो जाएं, परन्तु हम खाएंगी क्या? रहेंगी कहां? करेंगी क्या? हम स्त्रियां तो जैसे कटी हुई पतंग हैं, हमारा तो कहीं ठौर-ठिकाना है ही नहीं।'

"उसका भी बन्दोबस्त हो सकता है। पहिली बात तो यह है कि हिन्दू कोड बिल जब तुम्हें मुक्तिदान देगा तो तुम्हारे सभी बन्धन खोल देगा। तुम्हें सब तरह से आजाद कर देगा। पहले तो हिन्दू स्त्रियां पति से त्यागी जाकर पति से दूर रहकर भी विवाह नहीं कर सकती थीं, परन्तु अब तो ऐसा नहीं है। तुम मन चाहे आदमी से शादी कर सकती हो। अपनी नई गृहस्थी बना सकती हो, अपना नया जीवन-साथी चुन सकती हो। इसके अतिरिक्त तुम पढ़ी-लिखी सोशल महिला हो, तुम्हें थोड़ी भी चेष्टा करने से कहीं-न-कहीं नौकरी मिल सकती है। तुम बिना पति की गुलाम हुए, बिना विवाह किए, स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकती हो।'

'तो श्रीमती मालतीदेवी, क्या आप मेरी सहायता करेंगी? क्या आपके आसरे मैं साहस करूं? मैं तो बहुत डरती हूं। समझ नहीं पाती, क्या करूं।'

"आरम्भ में ऐसा होता है, पर बिना साहस किए तो पैर की