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अदल-बदल :: ३९
 

पुरुष का घर से बाहर। पुरुष अपने पुरुषार्थ से सुख-संपत्ति ढो-ढो-कर लाता है, नारी उसे सजाकर उपभोग के योग्य बनाती है पुरुष का काम प्रकट है। स्त्री का मुप्त है। पुरुष संचय करता है---स्त्री प्रेम दिखाकर उसे पुरस्कृत करती है। पुरुष संसार के झंझटों का बोझ ढो-ढोकर थका-मांदा जब घर आता है तो स्त्री प्रेम की वर्षा करके उसकी थकान दूर करती है। पुरुष का धर्म कठोर है, स्त्री का धर्म कोमल और दयनीय है। इसीलिए---नारी का स्थान प्यार है और वहीं रहकर वह पुरुषों पर अमृत की वर्षा कर सकती है।

'और यदि स्त्री भी घर के बाहर अपना कर्मक्षेत्र बनाए तो?'

'तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। संसार के झंझटों का झंझावात उसके रूप-रस को सुखाकर उसे नीरस बनाडालेगा। घर से बाहर का कठिन संसार पुरुष के मस्तिष्क और बलवान भुजाओं से ही जीता जा सकता है, स्त्री के कोमल बाहुपाश और भावुक हृदय से नहीं।'

'युग-युग से नारी को पुरुष ने घर के बन्धन में डालकर कमजोर बना दिया है, अब वे भी पुरुष के समान बल संचित कर घर के बाहर के संसार में विचरण करेंगी।' मायादेवी ने उपेक्षा से पति की ओर देखते हुए कहा।

किन्तु मास्टरजी ने सहज शान्त भाव से कहा---'तब उनमें से पुरुष को उत्साहित करने का जादू उड़छू हो जाएगा। उनके जिस स्निग्ध स्नेह-रस का पान कर पुरुष मस्त हो जाता है, वह रूप खत्म हो जाएगा। उनके पवित्र आंचल की बायु से पुरुषों की कायरता को नष्ट कर डालने के सामर्थ्य का लोप हो जाएगा। पुरुषों का घर सूना हो जाएगा। नारी का ध्रुव भंग हो जाएगा।'

'यों क्यों नहीं कहते कि नारी के स्वतन्त्र होने से प्रलय हो