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आकाश में निराधार स्थिति


अंग इनको सिद्ध हैं। अभी, कुछ दिन हुए, कानपुर में एक योगी आए थे। वह तीन दिन तक समाधि लगा सकते थे।

पुराने ज़माने की बात हम नहीं कहते। रामकृष्ण परमहंस आदि योग-सिद्ध महात्मा इस ज़माने में भी यहाँ हुए हैं। सुनते हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद को भी योग में दखल था। कई वर्ष हुर, पंजाब के किसी नवयुवक को अद्भुत सिद्धियों का वृत्तांत भो हमने अखबारों में पढ़ा था। इससे जान पड़ता है कि योग के सब अंगों में सिद्धि प्राप्त करनेवाले पुरुष यद्यपि इस समय दुलभ हैं, तथापि उसके कुछ अंगों में जिन्हें सिद्धि हुई है, ऐसे लोग अब भी यहाँ पर, कहीं-कहीं, देखे जाते हैं।

आकाश में निराधार स्थिर रहना और यथेच्छ विहार करना असंभव-सा है। पर यदि योग-शास्त्र में लिखी हुई बातें सच हैं-- और उनके सच होने में संदेह भी नहीं है--तो ऐसा होना सर्वथा संभव है। सुनते हैं, शंकराचार्य यथेच्छ व्योम-विहार करते थे। शंकरदिग्विजय नाम का एक ग्रंथ है। उसमें शंकराचार्य का जीवन-चरित है । उसमें एक जगह लिखा है--

ततः प्रतस्थे भगवान् प्रयागात्तं मण्डनं पण्डितमाशु जेतुम् ;

गच्छन् खसृत्या पुरमालुलोके माहिप्मतीं मण्डनमणिडतां सः।

अर्थात् मंडन पंडित को जीतने के लिये भगवान् शंकराचार्य ने प्रयाग से प्रस्थान किया, और आकाश-मार्ग से गमन करके मंडन-मंडित माहिष्मती-नगरी को देखा।