थे। उनको समाधि तक की सिद्धि है। तीन दिन तक वह
समाधिस्थ रह सकते है। पर कानपुर में वह जब तक रहे तब तक कोई तीन ही घंटे अपन कुटीर के भीतर रहते रहे। अर्थात्ती न घंटे से अधिक लंबी समाधि उन्होने नहीं लगाई योग और वेदांत-विषय पर वह खूब वार्तालाप करते थे पर संस्कृत ही में। जो लाग इन विपयों को कुछ जानत थे, उन्हीं की तरफ़ वह मुखातिब होते थे औरों से वह विशेष बातचीत न करते थे। उनसे या प्रार्थना की गई कि वह सबके सामने समाधिस्थ हों, जिसमें जिन लागों का योग विद्या पर विश्वास नहीं है, उनका भी विश्वास हो जाय। पर ऐसा करने से उन्होंने इनकार किया। उन्होंने कहा कि स्वामी हसस्वरूप से कहिएगा, वह शायद आपकी इच्छा पूर्ण कर दें। मैं तमाशा नहीं करता, चाहे किसी को विश्वास हो, चाहे न हो। बहुत कहने पर आपने दो-तीन दफ़े श्वास चढ़ाया, और अपने दाहने हाथ की
कलाई सामने कर दी। देखा गया, तो नाड़ी की चाल गायब; प्राण वहाँ से खिंच गए। उनके इस दृष्टांत से, उनके ग्रंथों से,
उनकी बातचीत से यह सिद्ध हो गया कि वह सचमुच सिद्ध योगी हैं। उनके इनकार ने इस बात को भी पुष्ट कर दिया कि लोगों को दिखाने के लिये योग की कोई क्रिया करना मना है।
अक्टूबर, १९०५