पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/११

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इस रचना मे कुछ अभाव रह गये। कुछ नये निबंध बढ़ाने थे और कुछ और संशोधन करना था पर हाजीमुहम्मद के मरने पर जी बैठ गया---कितनी बार चेष्टा की, पर न नया लिख सका--न पिछली को सुधार सका। तबीयत हाजिर ही नहीं हुई।

अब जैसी है, हाजिर है। इसमें और कुछ नही हो सकता---किसी तरह नही हो सकता। इसी रूप में पाठक इससे कुछ सन्तुष्ट हो सकेगे तो मेरी अन्तरात्मा की सर्दी बहुत कुछ मिट जायगी।

प्रख्यात साहित्य भ्रमर श्रीयुक्त पण्डित पद्मसिंह जी शर्मा को--जिनके हृदय सरोवर मे--अब और तब का, यहाँ और वहाँ का, सब जातका--रस भरा पड़ा है और जिनका मस्तिष्क हिन्दी-संस्कृत फारसी और उर्दू की प्रायः समस्त साहित्य की लायब्ररी है-धन्यवाद मे मै अशक्य हूँ। जिन्होंने अत्यन्त बारीकी से इस तुच्छ सी रचना पर अपनी छोटी सी किन्तु गम्भीर भूमिका लिखकर इसे उपादेय बना दिया है।

अलबत्ता मै श्रीयुत प० नाथूराम जी प्रेमी को धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने इस अललटप्पू रचना को अपनी ख्यातिलब्ध सीरीज मे स्थान देकर मुझे उपकृत किया है।

६-२-२१ बम्बई -श्री चतुरसेन वैद्य