पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२५

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प्रतिमा से निकृष्ट न समझा। कारण, मुझे अपने ऊपर बहुत भरोसा था। अपने हाथ की करामात पर मैं इठलाता था। आखिर मैंने अपनी समस्त जवानी मे जी तोड परिश्रम करके उस खेड़ी के टुकड़े को इस्पात ही बना कर छोड़ा।

अब कार्य सरल था। आकृति, प्रखरता और उपयोग...बस। साँचे मे ढाल कर मैंने उसकी आकृति बनाई। अब वह एक नाजुक तलवार थी। बिजली के समान उसमें चमक थी, धार की प्रखरता का क्या कहना था? बाल को चीर सकती थी।

उसी को मैंने हृदय मन्दिर के उस शून्य सिंहासन पर स्थापित कर दिया। उसी की मैं पूजा करने लगा। उसे देख २ कर मैं धीरे २ वीर और साहसी बनने लगा। राजा और सम्राटों तक उसकी पहुँच हुई और वह उनके हीरों और मोतियो के ढेरों से कहीं अधिक मूल्य की कूती गई!!

सिर्फ अकस्मात के सयोग की बात थी, और मेरी सनक थी, जो मैंने उसे इतना कमाया, ऐसा प्रखर बनाया। परन्तु मैंने कभी उससे कठार काम नहीं लिया। उसकी आव और धार को कभी हवा न लगने दी। मैं सिर्फ उसकी धार से नित्य आँखों मे सुरमा लगाया करता था।

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