पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१६४

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किसने बनाई है? उधर की आई हुई वायु का स्पर्श कैसा प्राणों को हरा कर देता है। वह पुरुष धन्य है जो इस उत्तप्त ग्रीष्म मे ऐसी हरी-भरी निकुज मे वास कर रहा है।

लो, सन्ध्या हो गई। दिन का प्रकाश बुझ गया। सन्मुख वह अग्निज्वाला ऐसी मालूम होती है जैसे किसी रक्तपिपासु जन्तु की लाल लाल ऑखे।

दूर जंगल मे कोई पशु चिल्ला रहा है। आकाश मे तारे उदासीनता से टिमटिमा रहे है।

प्रियस्मृतियाँ हठात् उदय हो रहीं हैं।

ओह! तब रात्रि कितनी स्निग्ध प्रतीत होती थी परन्तु वह कितनी शीघ्र समाप्त हो जाया करती थी।

वे सुगन्धित अलकावलियाँ उन निमीलित नेत्र सम्पुट पर लालायित स्वच्छन्द ओष्ठाधर, और...और...हाय, अब उसे स्मृतिपथ से दूर करना ही अच्छा है। इस एकान्त अन्धनिशा मे।

मेरे नेत्र निष्प्रभ हो रहे है और मेरा ज्ञान नष्ट हो रहा है। प्रिये, उस सुख स्वप्न की आशा मे; तुम्हारे चिरलुप्त नेत्रों के प्रकाश मे मै,एक झपकी लिया चाहता हूँ, किन्तु, यदि आज की रात्रि मे मेरे जीवन का अन्त होता तब---जब मैं

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