पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१८८

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असहनशीलता

अपनी असहनशीलता पर मैं हाय करता हूँ। पर प्राणी के सन्मुख मैं दया का भिखारी हूँ। जब लालसा की नदी चढ़ती है, मैं यत्न करके भी धीरज खो देता हूँ। ग्लानि और अनुताप के हिलोरों के थपेड़ों से जब बेसुध होने लगता हूँ तब सिर पर पैर रख कर उन्मत्त पथ पर दौड़ता हूँ।