पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२१

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कौन विचार करता? मैने दो कदम बढ़ कर उसे उठाया और खडे ही खड़े पी गया, जी हाँ, खडे ही खडे!!

पर प्याले बहुत छोटे थे बहुत ही छोटे। उनमे कुछ आया नहीं। उस चम्पे और चाँदनी ने जो उसे शीतल किया था और उम मिश्री ने जो उसे मधुरा दिया था, उससे कलेजे मे ठण्डक पड़ गई। ऐसी ठण्डक न कभी देखी थी न चखी। इसके बाद मैं मूर्ख की तरह प्याला लिये उसकी ओर देखने लगा। उसने कहा और लोगे? मैंने कहा---"बहुत ही प्यासा हूँ, और प्याले बहुत ही छोटे है, तिसपर उनमे टूटना निकला हुआ है, इनमे आता ही कितना है, क्या और है?"

उसने कहा---"बहुत है, पर भीतर है, घड़ों का मुँह खोलना पड़ेगा---क्या बहुत प्यासे हो?"

सभ्यता भाड़ में गई। कभी खातिरदारी का बोझ किसी पर नहीं रखता था। पराये सामने सदा संकोच से रहता था---पर उस दिन निर्लज्ज बन गया। मैंने ललचा कर कह ही दि---"बहुत प्यासा हूँ, क्या ज्यादा तकलीफ होगी? न हो तो जाने दो, इन प्यालियों मे थाया ही कितना?"

उसने कहा-"तो चलो घर, मार्ग मे खड़े खड़े क्यों? पास ही तो घर है"। मैं पीछे हो लिया।