पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२२

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खोलते ही ग़जब हो गया। लबालब था। गाँठ खोलने का एक हलका ही सा झटका लगा था, बस छलक कर बह गया। समेटे से न सिमटा। उसने कहा---पीओ, पीओ, देखते क्या हो? देखो बहा जाता है-मिट्टी में मिला जाता है।

मेरे हाथ पॉव फूल गये। मैंने घबड़ा कर कहा---यह इतना? इतना क्या मैं पी सकूँगा? यह तो बहुत है। और क्या छानोगी नहीं? उसने कहा-छानने में क्या धरा है। यह तो आप ही निर्मल है। फिर तलछट किसको छोड़ोगे? पी जाओ सब। इतने बड़े मर्द हो---क्या इतना नहीं पी सकते?

मैने झिझक कर कहा-और मिश्री? जरासी मिश्री न मिलाओगी? उसने हँसकर कहा---मिश्री रहने भी दो, ज्यादा मीठा होने से सब न पी सकोगे---जी भर जायगा, लो यह नमक मिर्च, चटपटा बनालो---फिर देखना इसका स्वाद! इतना कहकर उसने जरा यों, और जरा यों, बुरक दिया। वह नमक मिर्च काजल सा पिसा हुआ था, बिजली की तरह चमक रहा था। उसने स्वयं मिलाया, स्वयं पिलाया। भगवान् जाने क्या जादू था, फिर जो होश गया है अब तक बेहोश हूँ।