पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३३

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तब वे अपनी माको इतरा कर जवाब देते--"अम्मा! तेरा बेटा बड़ा बदमाश हो गया है, यह बिना पिटे ठीक न होगा। बुढ़िया झुंझला कर वहाँ से बड़बड़ाती उठ जाती थी, हम लोग खिलखिलाते, ही ही, हू हू करते, धमर कुटाई करते, अपने रास्ते लगते थे।

कितनी बार अन्धेरे कमरे में हम एक साथ सोये हैं। कितनी चाँदनी रातें गंगा के उपकूल पर बिताई हैं। कितने प्रभातों की गुलाबी हवा मे हमने एक साथ स्वर मिला कर गाया है, दोपहर की चमकीली धूप में स्वछन्द विहार किया है। वर्षा ऋतुमे हम जंगल मे निकल जाते, माधोदास के बाग़ से एक टोकरा आम भर ले जाते और नहर में जल-बिहार करते, आम चूसते-गुठलियों की चांदमारी करते। गर्मी के दिनों में प्रातःकाल ही खेत पर आ बैठते और ताजे ताजे खर्बूजे खाते। वे प्रायः कहा करते--'तुम मुझसे इतना प्रम मत बढ़ाओ, मुझे डर लगता है---तुम नाराज हो गये तो मैं कैसे जीऊँगा।' कभी वे मेरे हाल को देखकर कहते-'महाशय! तेरी उम्र की रेखा तो बहुत ही छोटी है।' मैं देखकर कहता-"अच्छा मैं मर जाऊँगा तो तू रोएगा तो नहीं?' वे बड़ी देर सोचकर कहते..'रोऊँगा तो जरूर' इसके बाद वे कुछ और कहना चाहते थे पर मैं समझ जाता था मुँह भींच देता था, बोलने देता ही न था।


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