पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


रक्त ठण्डा पड़ गया, जीवन का पता नहीं---क्या इरादा रखता है। भविष्य की रात घोर अंधेरी है, उसमें एक तारा भी नज़र नहीं आता। वर्तमान अत्यन्त क्षणिक है-पर उसके रोम रोम मे विकलता है। मन जैसे सूख गया है और मैं जैसे खो गया हूँ।

उस दिन के बाद ही सोचा था-बस अब सँभल गया,अब तक ठगाया गया हूँ, अब न ठगाया जाऊँगा। काम का त्याग कर दूँगा, वासना को धक्का दे डालूँगा, चाह का गला घोंट दूंँगा, हृदय को फॉसी लगा लूंँगा, और चुपचाप निश्चेष्ट भाव से मृत्यु के दिन की वाट देखूँगा। किन्तु यह सब कुछ तो किया, कर्म भी त्यागा, वासना को भी धक्का दिया, चाह का भी गला घोंटा, हृदय को फॉसी लगाई, पर चुपचाप निश्चेष्ट भाव से मृत्यु के दिन की बाट न जोह सका। इन सबके साथ स्मृति को भी यदि संखिया दे सकता तो यह सब सफल होता। अब सब बनने पर भी स्मृति बीच मे आकर काम बिगाड़ देती है। वह मेरी उजाड़ और ठण्डी शान्ति मे आग लगा देती है। मैं चुपचाप-निश्चेष्ट मन से मरने के दिन नहीं पूरे कर पाता हूँ।

वह दिन मुझे याद है-अच्छी तरह याद है, उस दिन मेह बरस रहा था-पर मूसलाधार पानी न था। रिमझिम वर्षा थी। उस दिन, हॉ उसी दिन उसने मुझे देखा या मैंने उसे देखा


३७