पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/५२

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काम लिया--मैने उसे जूतों से पिटवाकर निकलवा दिया। हाय!!

अब कुछ कण्टक नहीं था। लोकलज्जा भी नहीं थी। ऑख फूट चुकी थी। मैं दोनों हाथों से खाने लगा। पर सब खाया नही गया। बहुत था। जितना पेट मे समाया खाया। बाकी ? जिस तरह बच्चे आवश्यकता से अधिक पाकर---पेट भरने पर इधर उधर बखेर देते है-उसी तरह-वह रूप-वह योवन--मैंने भी बखेर दिया।

घर मे रखने को जगह न थी। वह मुद्दत तक ठोकरों मे पड़ा रहा। उससे रुचि हट गई। उस पर मक्खियां भिनकने लगीं। मैंने उसे, हाँ हॉ--उसे, उठवा कर बाहर फिकवा दिया। ओफ!!!

फिर बीच मे भेट नहीं हुई। केवल मरने से प्रथम मै उसे उसका सन्देश पाकर देखने गया था। वह खानगी वेश्याओं के मोहल्ले मे-नीचे के खन में--एक सील और दुर्गन्ध भरी कोठरी मे पड़ी थी। शरीर मलमूत्र मे लथपथ हो रहा था। कोने मे एक मिट्टी का घड़ा लुढ़क रहा था, भीतर उसमे पानी था, और ऊपर ओग बह रहे थे। गूदड़े गीले और मिट्टी जैसे थे। उसका शरीर जल रहा था, उसपर ओढ़ना नहीं था। घर मे


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