पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/५७

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था हाथ पैर नर्म थे स्त्री रो रही थी मित्रगण कफन लपेट रहे थे पर मैं दौड़ा गया, डाक्टर को बुला लाया। मैंने दॉत निकाल कर, रिरियाकर उससे कहा---"डाक्टर साहेब! फीस चाहे जितनी ले लीजिये, पर इसे एक बार अच्छी तरह देख दीजिये, क्या यह बेहोश हो गया है? शरीर देखिये कितना गर्म है।" डाक्टर ने करुण दृष्टि से मेरी ओर देखा, प्रेम से मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा मर्द हो। मर्द की तरह विपत्ति मे धैर्य धरो, शोक मे स्त्रियों की तरह घबराओ मत, व्यर्थ की आशा और मृगतृष्णा को छोड़ दो। भगवान् की इच्छा पूरी होनी चाहिए। और वह पूरी हुई।

मेरे हाथ पांव टूट गये। दिल बैठ गया, पर मै खड़ा रहा। मैंने आवाज करारी रक्खी---आंसू भी नहीं गिरने दिया-पर मन नीचे को धसकने लगा। मित्रों ने कहा--चलो, खडे क्यों हो? मैंने कहा---चलो। मैंने ही उसे हाथों पर रखा था---वह फूल की तरह हलका था।

आसमान का इतना ऊँचा जीना वह कैसी सरलता से चढ़ गया? याद से दिल की धड़कन बढ़ती है। जिगर मे दर्द उठता

-वह आँख का नूर गया--वह

-वह होठो की 'लाल रंगत, वह

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