पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/७९

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अपराध क्षमा करे। यहाँ तो मार्ग ही मार्ग है---मञ्जिल को कहीं ठिकाना ही नहीं है। क्या जाने कहीं है भी या नहीं।

प्यास के मारे कण्ठ चिपक गया है। जीभ तालू से सट गई है। घर मे कूए का ठण्डा जल था, उसे छोड़ अमृत के लोभ में निकला, तो प्यास पल्ले पड़ी। घर मे पेट भर रोटियाँ तो थीं---जैसी भी थीं---मोहन भोग के लोभ मे गधे की तरह वे छोड़ दीं, अब भूख के मारे ऑखें निकल रही है। चटाई का विछौना क्या बुरा था? सिंहासन कहाँ है? यहाँ चलते चलते पैर टूट गये है। वह वीहड़ मैदान, रेगिस्तान, नदी-नद, तालाब झील, जङ्गल, वन, नगर, पहाड़, गुफा, खोह, ऊबड़ खाबड़---ओफ बराबर तय किये आ रहा हूँ। अभी और भी तेरी उँगली उठ रही है। तेरी तेज़ी बराबर जारी है। तू नहीं थकी? पसीना भी आया? होश हवास बराबर कायम हैं? भीषणा सुन्दरी तू कौन है? वही आगे को उँगली उठा रही है। 'थोड़ी दूर और है' यही तेरा मन्त्र है। बढ़ी चली जा रही है ऑधी और तूफान की तरह। छोड़ दे, मेरी उँगली को छोड़ दे, नहीं तो मैं उँगली काट डालूंँगा। थोड़ी दूर हो या बहुत दूर हो, बस मुझसे नहीं चला जाता। घुटने छिल गये, बाल पक गये। पेट कमर में लग गया। कमर धरती पर झुक गई! अब भी दया


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