पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/९५

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हॅस देते है। सब बे अदब हैं। मुनीम गुमास्ते पीठ पीछे खिल्ली उड़ाते है। कोई नहीं सुनता---इस कान सुन कर उस कान उडाते हैं। सबको जानता हूं, किसी के हृदय में आदर नहीं, भक्ति नहीं, ममता नहीं। सभी मतलब गांठ रहे है। मैं बूढ़ा क्या खाक हुआ? धनी मालिक बनकर क्या ऐसी तैसी की? सुख नहीं था, शान्ति नहीं थी, इज्ज़त तो मिलती, बाहर न सही, अपने ही घर मे सही।

कर्जदार दिवालिये हो गये? बिना अदालत गये चलेगा नहीं। किसकी फिक्र करूँ? दो विधवा बहने छाती पर थी, अब भतीजी भी आ गई। आठ को साठ करते कितने दिन लगेगे? वापपने का सुख तो नहीं, दुख मिला। घर में बरात चढ़ी चली आ रही है। लोग सैकड़ों रिश्ते निकाल लाते है। चचा, ताऊ, साला, साले का साला, घेवती के नवासे का जमाई सब हाजिर हैं। जाने का नाम नहीं लेते। सब खा रहे हैं, बिगो रहे हैं। घर लुट रहा है। कुछ प्रबन्ध नही। कुछ इन्तजाम नहीं। क्या करूँ? रात करवटें लेते बीतती है और दिन चिन्ता करते। खाने बैठता हूं तो भोजन मुझी को खाये जाता है। घर मे सब कुछ है, पर मेरे लिये मिट्टी है। किसी मे मज़ा नहीं। क्या होगा? कैसे दिन कटेगे? क्या सखिया खाऊँ?

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