पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/९८

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चसका लग रहा है। तब बन जाने से इतना होगा कि यहां मनुष्मों से द्वेष और लड़ाई है वहां शेर चीतों से होगी। यहाँ मनुष्यों से प्रेम है, वहां पशु-पक्षियों से होगा। वाह रे भ्रम! क्या मै सिंह को देख कर डर से चिल्ला न उठूँगा? साप को देखकर क्या मैं उसे अपने बच्चों की तरह छाती से लगा सकता हूं? भेड़िये को पास बैठा कर क्या अपने साथ आदर से भोजन करा सकता हूं? नहीं। तो सिर्फ कपड़े रंगकर बनवासी होने से क्या होगा? मैं यदि अपनी स्त्री, पुत्र, परिजन और बान्धवों से प्रेम नहीं कर सका, तो अखिल विश्व पर---समस्त विश्व के स्वामी पर---कैसे प्रेम कर सकूंगा? सब विडम्बना है। छल है, आत्म-प्रतारणा है। सुन्दर प्रशस्त कर्मक्षेत्र घर है। कायर घर से डर कर बन को भागते हैं। घर तीव्र शस्त्र है। बुद्धिमान् और वीर उसे लेकर संसार को विजय करते है। मूर्ख कायर उसकी तेज धार से जख्म खा बैठते है। जिस प्रकार चतुर वैद्य तीव्र से तीव्र विष को रसायन बना कर रोगी को सेवन कराकर जीवनदान देता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे भयंकर विषों को रसायन बना कर जीवन को सफल करते है। रूप क्या विष है? प्रेम क्या बिच्छू है? धन क्या सर्प है? बाधव क्या सिंह है? अभागे लोग इनका कितने अविचार से त्याग कर देते है। भूल है-भूल है--भ्रम है। ज्ञान की प्रथम गुरु माता है। कर्म का प्रथम गुरु पिता है। प्रेम का प्रथम गुरु स्त्री है


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