पृष्ठ:अपलक.pdf/१००

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अपलक ३ मम उमंग-आशाएँ तुम बिन सब रीती हैं, स्वमिल हैं वृत्तियाँ, जो मेरी मन चीती हैं। तुम बिन जागृत घड़ियाँ तन्द्रिल-सी बीती हैं, मैं तो तब जाएँ जब, तुम भी मम हिये जगो; आ जाओ, हृदय लगो। केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाक १३ अगस्त १९४४ पिचासी