पृष्ठ:अपलक.pdf/१०२

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अपलक ३ सतत प्रतीक्षा ही में वर्तमान जाता है, नित्य प्रतीक्षा लेकर मम भविष्य आता है, यह अनन्त काल मुझे अपलक ही पाता है, बीत रहे हैं दिन-क्षण धरते तव ध्यान, सजन ! मेरा क्या काल कलन? अज्ञ गणित क्या जाने मम क्षण कितने विशाल ? प्रतिक्षण में उलझा है कल्पों का प्रथित जाल ! तुम बिन तो बघु त्रुटि भी बनती आनन्त्य काल, तुमको पाकर बनते युग-युग भी लघुतम क्षण ! मेरा क्या काल कलन? केन्द्रीय कारामार, बरेली, दिनाङ्क १० मई १९. } सत्ताली