पृष्ठ:अपलक.pdf/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपलक ३ जब कि तुम थे पास, तब था इस गगन का रङ्ग अनुपम जब कि तुम थे पास, तब थे चमकते रज-करण चमाचम; कोकिला के करठ में था तब मिलन का राग पंचम , अब हुआ कैसा न जानें सब जगत-व्यवहार मेरा बढ़ रहा है भार मेरा! रात की इस चाँदनी की रौप्यता कुछ खो गई है। और, कोकिल की मदिरता भी तिरोहित हो गई है। शून्यता, मम डगर में, अनगिनत कण्टक बो गई हैं; शून्य है दिन, साँझ सूनी, और, सूना हैं सबेरा; फिर बढ़ा हिय-भार मेरा! ५ एक है यह चित्र, जिसको देखता हूँ मैं निरन्तर किन्तु, यह क्या सान्त्वना दे मधुमिलन क्षण के अनन्तर ? स्मरण तो हैं और भी करते विवद्धित काल-अन्तर ! सुब्ध होता है अधिक यो विरह-पारावार मेरा ! टोह का फिर भार मेरा! केन्द्रीय कारागार, बरेखी, दिनाङ्क ११ अप्रैल १९४४ नवासी