पृष्ठ:अपलक.pdf/१०९

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सखि, वन-वन घन गरजे (गीत) सखि, वन-वन घन गरजे; श्रवण निनाद-मगन, मन उम्मन, प्राण-पवन-कण लरजे री सखि, वन-वन धन-गन गरजे । १ परम अगम प्रियतमागमन की यह शंख-ध्वनि आई, मन्थर गति रति चरण चार की चाप गगन में छाई अम्बर कम्पित, पवन संचरित, संमृति अति सरसाई; मन्द्र-मन्द्र आगमन-सूचना हिय में आन समाई; क्षण में प्राण हुए उन्मादी; कौन इन्हें अब बरजे ? री सखि, वन-वन धन-ान गरजे । २ मेरा गगन और मम आँगन आज सिहर कर काँपा, मेरी यह श्राह्लाद-विथा, सखि, बनी असीम अमापा, चौरानवे