पृष्ठ:अपलक.pdf/११

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सकती है। जब पूजी-शोषण-वर्ग-भेद का अन्त हो जायगा तब भी प्रेमी हृदय वेदना विभोर होकर अवश्य रो-गा उठेगा कि: ये घंटे धन-घन-घन गजे, लो आधी रात हो गई, साजन, किन्तु नहीं सुन पड़ी अब तलक श्रो सुकुमार, तुम्हारी पाँजन ! इसलिए मैं कहता हूँ कि इस प्रकार की तर्क-प्रणाली में अपनी विचारधारा को अत्यधिक मत बहायो । वह प्रणाली केवल आंशिक सत्यवती है। सामन्तवाद, पूँजीवाद, वर्गवाद आदि का समीक्षण अच्छा है । पर, उसको भल्ल-मल्ल अनर्थक प्रत्यादेश (Reductio ad absurdum) की सीमा तक ले जाना नितान्त अनुचित है। यदि कोई यह समझता हो कि हिन्दी-काव्य-साहित्य में प्रकटित द्वन्द्व-भावना सामन्तशाही के अवशेषा और साम्राज्यशाही के स्वार्थ प्रसार के कारण है तथा इनके तिरोहित होते ही यह द्वन्द्व समाप्त हो जायगा, तो मैं यही कहूँगा कि यह मान्यता अशुद्ध, सर्क-शन्य, थोथी और निःसार है। द्वन्द्र और उसकी वेदना-व्यथामयी अभिव्यक्ति मानव-जीवन के संग संश्लिष्ट है। पूर्ण वर्ग-विहीन समाज में क्या मानव इतना जड़, स्पन्दन-हीन, संवेदन-रहित एवं शूकर-संतोषवान हो जायगा कि वह कहवं ? कोऽहं ? के प्रश्न न पूछे ? वह पूछेगा, वह पूछ रहा है। इस कारण किसी भी समाज-व्यवस्था में मानव-हृदय के द्वन्द्व के तिरोधान होने की बात कहना भ्रान्तिमय है। हाँ, अात्मोपलब्धि की साधना में निन्द्वता श्रा सकती है। जो बालोचक यह कहते है कि हिन्दी के साहिल्पिक गांधीवाद, उपनिषत् दृष्टिकोण और बौद्ध दर्शन से प्रभावित होने के कारण सामन्तवाद के पोषक हैं या उससे समझौता कर चुके हैं, उन थालोचको से यदि कोई यह पूछे कि भाई, क्या तुमने कोई तीर मारा है, तो, वे यही कहेंगे कि हाँ, हम विचारों की क्रान्ति कर रहे हैं। ऐसे निष्क्रिय, पोथी-पन्थी, विचार-पुण्य-जीवी, उच्छिष्ट-भोजी आलोचको का जन-संवर्ष में कोई हाथ नहीं। वे जनता से कोसों दूर हैं। हाँ मुख-चU में वे प्रवीण हैं। पर, इस बात को जाने दीजिये। विवाद में व्यक्तिगत प्रश्न क्यों ॐ ? हम यह निवेदन करते हैं कि यदि वे लोग उपनिषत्-बुद्ध-गांधी-दर्शन को किसी वाद से समझौता करने वाला मानते हैं तो वे असत्य बोलते हैं। इस देश के निवासियों को यह ज्ञात है कि अपने को पूँजीवाद के नाशकर्ता कहने वालो ने, वर्गहीन समाज की स्थापना का दम भरने वालों ने, अपने विप्लवकारी होने का ढिंढोरा पीटने वालो ने मानवता के भयानक संकट-काल में असीम निर्लज्जता,