पृष्ठ:अपलक.pdf/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

घन-गजन-क्षणा १ और नहीं यदि कुछ दे सकते इस धन-गर्जन के क्षण में, तो विस्मरण-हलाहल ही दो इस माटी के भाजन में; सुन लो, घन तर्जन करते हैं, अम्बर से रस-करण झरते हैं। साजन, आज अमृत के धन भी हिय में स्मर-फुहियाँ भरते हैं। दो मीरों का विष-ग्याला ही इस असमय के सावन में, यदि कुछ और नहीं दे सकते तुम धन-गर्जन के क्षण में । २ कुलिश-कड़ाके से नभ भरती दामिनि पैठ गई मन में, रोम-रोम रम रही बीजुरी, टीस उठी है सब तन में अम्बर में छाया अँधियारा अन्तर का स्मृति-दीप बिचारा, चिन्ता-घात-प्रताड़ित, इङ्गित, लप-झप, करता है हिय-हारा; आकर इसे बुझा ही दो, अब छाए तम हिय-आँगन में; क्यों बिन काज टिमटिमाए यह इस घन-गर्जन के क्षण में? एक सौ पांच