पृष्ठ:अपलक.pdf/१२२

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३ देखो तो आँखें ये क्वाऽसि-आस-त्रास-भरी, तैर रही हैं दुर्दम तम में चिर प्यास-भरी, अब तो दरसा दो, प्रिय, मंजुल, छवि हास-भरी, ओ मेरी ज्योति छटा, अब तो तम तोम हरो, अपलक चख चमक भरो। ४ अकुलाई, मुरझाई मन-मधुकर की पॉखें अकुलाया है जीवन, अकुलाई हैं आँखें; इस तम में इधर-उधर, कहो, किधर, हग झाँ के ? आओ, लोचन पथ में, चपल, अरुण चरण धरो; अपलक चख चमक भरो। ५ सोचो तो नैंक, सजन, प्राण-व्यजन आतुर यह, डोलेगा कब तक अति निरवलम्ब यो अहरह ? जीवन इक भार हुआ, है विछोह यह दुस्सह ! या तो अब प्राण हरो, या हिय में तुम विचरो अपलक चख चमक भरो। जिला जेल, उभाव, दिनाङ्क १३ अक्तूबर १६४२, } Accession No.250319 एक सौ पाठ Shanterakshita Library That Jostitute-Sarnath