पृष्ठ:अपलक.pdf/२०

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अपलक ३ विकट मेरी दूर मंज़िल राह बन्धुर, निपट पकिल, है सहारा अगम मग में तब चरा-नख-ज्योति झिलमिल: मिल गई यौवन-निशा में ज्योतिमय मुसकान; पीतम, आज हुलसे प्राण पार करना है मुझे प्रिय, गहन गहर, शिखर, सेन्द्रिय क्यों अभी से पूछते हैं- कि कब होऊँगा अतीन्द्रिय ? घोर विषयासक्ति मम है अनासक्ति-विधान; पीतम, आज हुलसे प्रारम् । ५ तुम सरल, शुचि, कमल लोचन, तुम सकल संकट विमोचन, आज कर दो इस विधुर के- भाल, कुकुम-तिलक रोचना दो पराजित को विजय का चिह्न, हे रसखान, पीतम, आज हुलसे प्राण। ६ आ गए तुम यों झिझकते- विरत जीवन में हिचकते; चार