पृष्ठ:अपलक.pdf/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ढरक-ढरक मत गिर, रे हग-जल ! ढरक-ढरक मत गिर, रे दृग-जल, अपनी अंतहित पीड़ा को मत प्रकटा रे, तू यों पल-पल; ढरक-हरक मत गिर रे, हग-जल । १ जाने कितने कृत-अकृतों की संचित हैं हियतल में स्मृतियाँ, मन पर उभरी हैं कितनी ही असंक्रमित ये जीवन-मृतियाँ किन्तु श्राज अनुताप रूप घर, वे सब स्मरण बहें क्यों गलगल ? ढरक-ढरक मत गिर, रे हग-जल । २ उझक-उझक उठते है हिय में इस जीवन के सब गत अवसर, उद्वेलित कर ही देते हैं स्मरण-मीन मानव का मन-सर; पर, ओ मानस के जल, मत बह नयन प्रणाली से तू छल-छल, ढरक-ढरक मत, गिर, रे दृग-जल ! ३ अरी आह, तू वाष्प बनी रह, तरल-नयन-जल मत बन, मत बन; कौन लाभ होगा यदि भींगे मानव के लोचन ओ' तन-मन ? सात