पृष्ठ:अपलक.pdf/२६

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ज्वर झाँक रहा है मेरे नयनों से ज्वर झाँक रहा है, प्रियवर, मन में उद्वेग अमित, तन में है ताप प्रखर । १ मस्तक के स्नायु तन्तु तड़क रहे हैं रह-रहा मानों कुछ जीव-जन्तु भड़क रहे हैं रह-रह; कौन कहे “शुभाःसन्तु!" मम श्रवणों में अहरह ? निपट अनाश्रित हूँ मैं, हूँ एकाकी, हूँ बेघर । मेरे नयनों से ज्वर झाँक रहा है, प्रियवर । २ पड़ा हुआ हूँ मैं इस निर्जन में नीम तले; अच्छा है ! मेरा ज्वर किसी को न आज खले !! ज्वराकान्त नयनों से यदि कुछ जल आज ढले- तो भी अच्छा ही है ! क्यों न झरे हग झर-झर ? मेरे नयनों से ज्वर झाँक रहा है, प्रियवर । ३ यहाँ-वहाँ हूँढ रहे तुम्हें अरुणमय लोचन, जब-तब करते हैं ये उप्पा-उपरण जल-मोचन दस