पृष्ठ:अपलक.pdf/२७

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अपलक नयनों में छाओगे कब तक तुम दृग-रोचन ? पुतली पर कब होगी अकित तब छटा छहर ? मेरे नयनों से ज्वर झाँक रहा है, प्रियवर । श्रवणों में है सन-सन, प्राणों में है उलझन, नस-नस में है झन-झन, तड़पी है मंजु लगन, काँप रहा तन क्षण-क्षण, ज्यों कंपित वंजुल बन ताप भ्रमित मम शिर पर कौन धरे शीतल कर ? मेरे नयनों से ज्वर झाँक रहा है, प्रियवर । केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाक १८ मई, १९४४ जुल = बेंत । वंजुल वन बेंत का बन । ग्यारह