पृष्ठ:अपलक.pdf/३०

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इतिश्री भाई; आज इतिश्री हो जाने दो मेरी कसक कहानी की; अब विस्मृत हो जाने दो सब भूलें विगत जवानी की। १ आवागमन लगा रहता है यहाँ अतिथियों का, भाई, यह मन तो ढोता ही है नित बोझा स्मृतियों का, पर मुझको क्यों उलझा रक्खे इन पहुँनों की पहुनाई ? यों, मैं गाता रहूँ कब तलक गाथा श्रानी-जानी की ? आज इतिश्री हो जाने दो मेरी कसक-कहानी की । २ क्यों न निहारू मैं जगती में शोभा रुचिर सरसता की ? मैं क्यों चरंचा करू दिवस-निशि, उनकी अतुल अरसता ? क्यों न करूं मैं नियति-प्रकृति की मन मोहिनी दरस-झाँकी ? और अधिक कड़ियाँ क्यों जोडू मैं अपनी नादानी की ? आज इतिश्री हो जाने दो मेरी कसक-कहानी की। ३ जो पादप कल पर्णहीन थे, वे बन आए आज हरे; लहर उठे हैं वे ही,-कल तक जिनके पीले पात झरे, चौदह