पृष्ठ:अपलक.pdf/३२

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४६वें वर्षान्त के दिन आज एक यह वर दो, प्रियतम, आज एक यह वर दो। अपनी अलख-मलक-आभा से मम अन्तरतर भर दो! प्रियतम, आज एक यह वर दो। १ वय-शृखल में आज पड़े चुकीं छियालीस ये कड़ियों, छियालीस तप-ऋतुएं बीतीं छियालीस ही झड़ियाँ किन्तु शून्यवत ही बीती हैं मेरी जीवन - घड़ियाँ अब तो तुम निज अंक, शून्य के वाम भाग में, धर दो ! प्रियतम, आज एक यह वर दो। २ क्या रोऊँ अब तक की अपनी असफलता की गाथा ? उसके अमित भार से मेरा झुका हुआ है माथा । तुम से छुपा नहीं है मेरा लंबा - चौड़ा खाता; बीत चले हैं मम जीवन के यो बेकार प्रहर दो ! प्रियतम, अब अन्तर तर भर दो । ३ मार्गशीर्ष की ऐन पूर्णिमा को जीवन में आया, किन्तु रही जीवन भर मेरे सँग-सँग तम की छाया ! सोलह