पृष्ठ:अपलक.pdf/३७

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अपलक तुम निभाश्री निज निठुरता नित्य निःसंकोच, प्रियतम , पर, निभाऊँ मैं न अपनी नित समर्पण आन क्या, प्रिय ! दान का प्रतिदान क्या, प्रिय ? ४ ये लखो, आकाश में चमके नखत अनगिनत, साजन यह लखो, मम नयन में चमकी लगन अति विनत, साजन और शिजन कर उठी तव गमन-उत्सुक चरण-पाँजन ! तुम न रुककर सुन सकोगे गमन के कुछ गान क्या, प्रिय ? दान का प्रतिदान क्या, प्रिय ? , श्री गणेश कुटोर, कानपुर, दिनाथ मई, १९४८ खखनऊ से पाने के उपरान्त सन्ध्या समय इक्कीस