पृष्ठ:अपलक.pdf/४

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मेरे क्या सजल गीत ? यह मेरा एक और गीत-संग्रह प्रकाशित हो रहा है। मैं इन गीतो के सम्बन्ध मे क्या कहूँ ? पाठक और समीक्षक अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल इस बात का निर्णय करेंगे कि ये कैसे हैं। अपने सम्बन्ध में मै निःसंकोच यह कहता हूँ कि मुझमे साधना का अभाव है। साहित्य-साधना के लिए, माता सरस्वती की उपासना के लिए, जिस एकनिष्ठा की आवश्यकता होती है वह मुझमे नही रही । जीवन एक प्रकार से उखड़ा-उखड़ा-सा रहा है। यदा-कदा, जब कुछ भीतर से खुट्-खुट हुई, लिखने बैठ गया। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि व्यर्थ ही मैने काव्य-रचना का प्रयास किया। मेरे पास न शब्द हैं, न कला-कौशल है, न अध्ययन- गाम्भीर्य है; और न स्वेद-सामर्थ्य । तन्तुवाय एक-एक तार पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है; तब कही जाकर वह गर्व से कह सकता है कि 'भीनी-झीनी बिनी चदरिया ।' एक मैं हूँ जो स्वर-ध्वनिमय शब्दो का ताना-बाना पूरने का नाटक रचता हूँ, पर, तन्तुवाय की ध्यान केन्द्रीयता की साधना नहीं कर सका हूँ। उपयोगिता, उपादेयता, प्रगतिशीलता, अपलायनवादिता, सामन्ती विचार- धारावरोधक विद्रोहवादिता, औद्योगिक पूँजीवाद-अन्य संघोत्तेजक झण्डोत्तोलन, ले लो, खड्ग-पटक दो-म्यान-मय क्रान्ति-अावाहन, दन्द्रम्यमाना-दिग्-दिङनाद-प्रेरणा, दुर्दान्ताक्रान्तक-जम्भ-दन्तोत्पाटन-संदेश-वहनशीलता श्रादि सत् काव्य-सल्लक्षण मेरे इन गीतो मे कठिनता से मिलेगे। और फिर, मैं यह भी नहीं जान पाया हूँ कि मैं कौन-वादी हूँ! हमारे सौभाग्य से हमारे बालोचना-शास्त्र ने बड़ी उन्नति की है। परिश्रमी, अध्यवसायी, विद्वान् विचारको ने वर्तमान हिन्दी-साहित्य मे अनेकानेक- वादो के दर्शन हमें कराए हैं। मुझ जैसे अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञानाअन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं यैः अालोचकैः महानुभावैः; तेभ्यः श्री गुरवेभ्यो नमः । उन महानु- भावों की अालोचना-तत्व-दीपिकाओ के प्रकाश में हम देख सके हैं कि हमारे काव्य- साहित्य में छायावाद है, मायावाद है, फ्रायडीय जाया-बाद है, रोमाचवाद है, पलायनवाद है, वर्ग-संघर्षोत्तेजक प्रगतिवाद है, पूँजीवादी-शोषण-समझौताबाद है, सामन्तवाद है, प्राकृतिक सूक्ष्म सौन्दर्यवाद है, प्रगति-प्रतिगति-सीमान्तवाद है,