पृष्ठ:अपलक.pdf/५

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ख तितली-रंग-झाँई वाद है, आध्यात्मिकवाद है, आदर्शवाद है, यथार्थतावाद है, और, और भी न-जाने-क्या-वाद हैं। इन सब वादों की चलनी मे मेरे गीत साफ़ छन जायंगे। यह मैं जानता हूँ। और अालोचक बन्धु इन गीतों मे यदि कोई तत्व की बात न पायं तो मुझे श्राश्चर्य न होगा । मुझे स्वयं ये गीत कुछ यों ही-से लगते हैं। कदाचित् एक बार मैंने कहा था कि तुलसी बाबा की 'निज कवित्त केहि लागन नीका' वाली उक्ति मुझ पर घटित नहीं होती। इसलिए यदि साहित्य-समीक्षक बन्धुओं को इन गीतो में कोई तत्व की बात न दिखाई दे तो मुझे उनसे अनल मानने का कोई कारण प्रतीत नहीं होगा। जब मै यह कहता हूँ तो कोई महानुभाव यह न समझ ले कि मैं द्विपद प्राणी निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि श्रागमापायी अनित्य द्वन्द्वो से परे हो जाने की अपनी स्थिति प्रकट कर रहा हूँ। नही । मैं केवल यह कह रहा हूँ कि यदि किन्हीं बन्धुनो को इन गीतो मे कोई विशेष बात न दिखलाई दे तो मेरी उनके साथ सहानुभूति होगी। मैं उस दर्शन को हृदयंगम नहीं कर सका हूँ जो मानव की ज्ञान-उपलब्धि को केवल इन्द्रियोपकरण-जन्य मानते है। पदार्थवादी पंडित, बाह्य जगत् की, मानवे- न्द्रियों पर होने वाली प्रतिक्रिया में, ज्ञान का श्रारम्भ देखते हैं। हम सब बाह्य पदार्थों की प्रतिक्रिया-अपनी इन्द्रियो पर होने वाली प्रतिक्रिया--से पदार्थों का शान प्राप्त करते हैं। शीत-उष्ण, मधु-कटु, दूर-निकट, घन-तरल, अन्धकार-प्रकाश आदि का ज्ञान निःसन्देह संस्पर्शज है, अर्थात् इन्द्रिय-जन्य है। पर इस ज्ञान को केवल इन्द्रिय कम्पन-जन्य मान लेना इसलिए भ्रमात्मक है कि इस प्रकार के ज्ञान मे मानव ने नो एकसूत्र-बद्धता तथा कार्य-कारणता विकसित की है वह केवल- ऐन्द्रिक प्रतिक्रिया द्वारा उपलब्ध नही होती है। मेरी सैद्धान्तिक मान्यता इस प्रकार की होने के कारण मैं कला-साहित्य-समीक्षा के उस मान-दण्ड को भ्रामक मानता हूँ जो प्रत्येक साहित्यिक कृति अथवा कला-कृति को सामाजिक परिस्थिति के ऊपर श्रात्यन्तिक रूप से आधारित कर देता है। निश्चय ही भौतिक शरीरधारी मानव पदार्थ-मूलक धरातल पर कार्य करता है। बाह्य परिस्थितियों साहित्य-कृतियो को प्रभावित करती हैं, पर मानव की न-इति-प्यास को भौतिक प्रभाव-जन्य कहना अनर्थ-मूलक है । विचारको मैं एक प्रकार का श्राग्रह होता है। यदि ऐतिहासिक क्रम से हम मानव की कर्म-प्रेरणाश्रो के सम्बन्ध में समय-समय पर दिये गए कारणोंपर विचार करें तो हम यह देखेंगे कि कुछ काल तक एक सिद्धान्त बहुत बल-पूर्वक चलाया जाता है और फिर वह जैसे सामाजिक अचेतन-स्तर पर उठाकर रख दिया